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मुंशी तिलोक चंद महरूम / हुस्ने-नज़र / रतन पंडोरवी
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रतन साहिब की ग़ज़लियात में ज़ियादातर अशआर तसव्वुफ़ और इरफाने-हक़ हैं। मैं न तो सूफ़ी हूँ न आरिफ़ कि इन अशआर की माहियत को पहुंच सकूँ। लेकिन कौन है जो इस किस्म की शायरी से लुत्फ अंदोज़ नहीं होता। रतन साहिब कहते हैं।
- बैठा हूँ मैं आप अपने दिल में
बेगाना कोई मकीं नहीं है।
चंद सादा अल्फ़ाज़ में बहुत बड़ी बात कह दी है। मसअला तो ग़ालिबन वही 'हमा औस्त' का है। तर्ज़े-अदा निहायत ख़याल आफ़रीन और दिल-नशीं है।