मुकद्दमा / कविता भट्ट
अरे साहेब!
एक मुकद्दमा तो उस शहर पर भी बनता है
जो हत्यारा है–
सरसों में प्रेमी आँख-मिचौलियों का
और उस उस मोबाइल को भी घेरना है कटघरे में
जो लुटेरा है–
सरसों सी लिपटती हँसी-ठिठोलियों का
हाँ-
उस एयर कंडीशन की भी रिपोर्ट लिखवानी है
जो अपहरणकर्त्ता है-
गीत गाती पनिहारन सहेलियों का
और उस मोबाइल को भी सीखचों में धकेलना है
जो डकैत है-
फुसफुसाते होंठों-चुम्बन-अठखेलियों का
उस विकास को भी थाने में कुछ घंटे तो बिठाना है
जिसने गला घोंटा;
बासंती गेहूं-जौ-सरसों की बालियों का;
लेकिन इनका वकील खुद ही रिश्वत ले बैठा है
फीस इनसे लेता है;
और पैरोकार है शहर की गलियों का
ओ साहेब!
आपकी अदालत में पेशी है इन सबकी
कुछ तो हिसाब दो -
उन मारी गयी मीठी मटर की फलियों का
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