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मुकम्मल कोई नहीं / सुस्मिता बसु मजूमदार 'अदा'
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मुकम्मल कोई नहीं,
न लम्हा,
न पहर,
न साल,
न जिन्दगी।
जिन्दगी और मौत के बीच,
खुशियों और गम के ताने-बाने पर
रिश्तों के धागे चढ़ाकर,
एक चादर बुनने की कौशिश में लगा हूँ।
मैं जान बूझकर हार जाता हूँ तुझसे
तुझे जीतने की कोशिश का ये भी
एक हिस्सा है।
मुकम्मल कोई नहीं,
न मैं,
न तू,
न इबादत,
न बंदगी।