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मुक़द्दर का लिखा हूँ मैं / निश्तर ख़ानक़ाही
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अपने ही खेत की मिट्टी से जुदा हूँ मैं तो
इक शरारा हूँ कि पत्थर से उगा हूँ मैं तो
मेरा क्या है, कोई देखे कि न देखे मुझको
सुबह के डूबते तारे की ज़ियां* हूँ मैं तो
अब यह सूरज मुझे सोने नहीं देगा शायद
सिर्फ़ इक रात की लज़्ज़त का सिला* हूँ मैं तो
वो जो शोलों से जले उनका मुदावा* है यहाँ
मेरा क्या ज़िक्र कि शबनम से जला हूँ मैं तो
तुम जो चाहो भी तो फिर सुन न सकोगे मुझको
दूर जाते हुए क़दमों की सदा हूँ मैं तो
कौन रोकेगा तुझे दिन की दहकती हुई धूप
बर्फ़ के ढेर पे चुपचाप खड़ा हूँ मैं तो
लाख मोहमल* सही पर कैसे मिटाएगी मुझे
जिन्दगी! तेरे मुक़द्दर का लिखा हूँ मैं तो
1- ज़ियां--रोशनी
2- सिला--परिणाम
3- मुदावा--उपचार
4- मोहमल--अर्थहीन