भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुक्तक-१ / शंकरलाल द्विवेदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

किसी पर रीझ जाते हो, किसी से रूठ जाते हो।
किसी के हाथ लगते हो, किसी से छूट जाते हो।।
भटकते हो हृदय मेरे, तभी सौन्दर्य सागर में-
कहीं तुम डूब जाते हो, कहीं तुम टूट जाते हो।।