मुक्तक-05 / रंजना वर्मा
कब चैन मिला करता मन को  खामोशी तनहाई में 
हम रहे  ढूंढते  हैं  खुद  को  अपनी  ही  परछाईं में।
आहें सब कैद हुईं लब में आँसू आँखों के सूख गये
जाने कितने हैं जख़्म छिपे  इस दिल की गहराई में।।
रहे सुख चैन में  जब तक न  कुछ  देता  दिखाई है।
गये मंदिर दरश  को  तो  फ़क़त  घण्टी  बजायी है।
पुकारा कब तुम्हे दिल से किया आह्वान ही कब था
हुई अब साँझ  जीवन  की  तो तेरी  याद  आयी है।।
सवेरे  उठ  सुनहरी  भोर  यह  पैगाम   लाती  है
ढले जब शाम सागर  की  लहर हर गीत गाती है।
संवरिया सुधि हमारी ले यही बहती हवा कहती 
करूँ अर्पित तुझे क्या पास में बस  फूल पाती है।।
कन्हैया के बिना जलसा कोई महफ़िल नहीं लगता
किसी भी अंजुमन में अब हमारा  दिल नहीं लगता।
बहुत सोच बहुत  चाहा  करें  ऐसा  कि  दिल बहले
मगर जलवा कोई भी प्यार के काबिल नहीं लगता।।
अब चलो चलें साथी
प्रीत   में  पलें  साथी।
पीर हो किसी की भी
साथ हम  गलें साथी।।
	
	