मुक्तक-08 / रंजना वर्मा
घिरी  यह  रात  अंधेरी  नहीं  है
हमारे    काम   मे   देरी   नहीं है।
जरा तू पाक आ कर ये बता जा
खता किस की है ग़र तेरी नहीं है।।
क्षितिज पर एक  पंछी  रो  रहा है
अँधेरा   कुछ   घनेरा   हो  रहा  है।
उदयगिरि की तरफ नजरें उठाओ
उजाला  उषा  के  पग  धो  रहा है।।
मुहब्बत  के  केवल  तलबगार हो
जमाने  मे   सब  से  वफादार  हो।
कहें  लोग  तुम को  भला  या बुरा
शनिश्चर के साथी हो तुम यार हो।।
हिज्र का  टूटा  कहर  है  जिंदगी
हो रही फिर भी  बसर है जिंदगी। 
है खुदा का नूर यह  बिछुड़ा हुआ
कुछ फरिश्तों की उमर है  जिंदगी।।
उलझनें  इतनी  बढीं   उद्भ्रांत   मन  होने  लगा
जिंदगी की  मुश्किलों से  क्लांत  मन  होने लगा।
छोड़ कर संसार मन जब  आत्म में स्थित हुआ
मिट गयीं सब भ्रांतियाँ  तब शांत मन होने लगा।।
	
	