मुक्तक-102 / रंजना वर्मा
नियम बनाता ही रहे, रोज़ नये संसार
बिन माँगे मिलता नहीं, जीवन मे अधिकार।
दया दूसरों की मिले, कभी न हो संयोग
दे दें हम सर्वस्व पर, माँगें केवल प्यार।।
जन्माते फिर पालते, दुनियाँ में माँ बाप
सुख देते सन्तान को, कष्ट झेलते आप।
सन्तति का कर्तव्य यह, ऐसा करे प्रयत्न
वृद्धावस्था में उन्हें, मिले नहीं सन्ताप।।
सिंधु में जैसे उमड़ती है लहर
या ग़ज़ल की हो को'ई प्यारी बहर।
मोड़ कितने ही मगर मंज़िल नहीं
ज़िन्दगी जैसे कोई लम्बा सफ़र।।
कर रही पुष्प मन का समर्पण तुम्हें
भावना कामनाओं का अर्पण तुम्हें।
स्वर्ग का राज्य तुम को मिले सर्वदा
है समर्पित हृदयभाव दर्पण तुम्हें।।
समर निज भावना का बुध्दि बल से नित्य होता है
कलम से शब्द निसृत भाव का ही भृत्य होता है।
सहज सुन्दर विचारों भावनाओं कल्पनाओं की
बनाता जो सुखद माला वही साहित्य होता है।।