मुक्तक-17 / रंजना वर्मा
तुम इसको अपना घर समझो
ईश्वर मौला का दर समझो।
जो मिल जुल रहना ना जाने
उस को बे घर बे दर समझो।।
फँसी है भँवर बीच जीवन की नैया
न पतवार ही है न कोई खिवैया।
भँवरनीर नीचे लिये जा रहा है
सुनो टेर अब तो बचा लो कन्हैया।।
तुम्हारे द्वार पर आऊँ यही अपना इरादा है
चरण में शीश हो मेरा ये चाहत भी जियादा है।
हमे तुम मान लो अपना बनाकर ख्वाब आंखों का
रखूँगी साँवरे तुम को ये मेरा तुम से वादा है।।
रहे यह जिंदगी जब तक कभी मुझ को सताना मत
बड़ी रंगीन है दुनियाँ किसी से दिल लगाना मत।
अजब है फ़लसफ़ा दिल का मुहब्बत टूट कर करना
करो नफरत अगर मुझको तो मुझको याद आना मत।।
क्या कहें कुछ भी कहा जाता नहीं है
साँवरे के बिन रहा जाता नहीं है।
छोड़ कर मथुरा चला आ अब कन्हैया
बिन तुम्हारे कुछ हमें भाता नहीं है।।