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मुक्तक-32 / रंजना वर्मा

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मिलन में छिपा कर जुदाई न दे
भरी चींटियों से मिठाई न दे।
दबा दे गला जो किसी गैर का
हमे पाप की वो कमाई न दे।।

किसे कहें गद्दार सभी तो अपने हैं
भरे आँख में सभी स्वार्थ के सपने हैं।
करें नित्य ही घायल भारत माता को
अभी न जाने कितने दिल यूँ तपने हैं।।

कुर्सी बनी हुई है जैसे गुलाब की
है डोल रही नीयत देखो जनाब की।
लगती बड़ी सुहानी पर जख़्म भी देती
ज्यों धूप आसमां में हो आफ़ताब की।।

धुन वंशी की गूंज रही यमुना तीरे
मुग्ध गगन है लगी डोलने अवनी रे।
देव, दनुज,गन्धर्व सभी हैं झूम रहे
बात करूँ क्या धरती के मानव की रे।।

जो सत्य के पुजारी दो टूक कह गये
सुन के उसे वाचाल सभी मूक रह गये।
थे दाग रहे गोले जो प्रश्नबमों के
गोली के बिना जैसे बन्दूक रह गये।।