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मुक्तक-38 / रंजना वर्मा

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सहमी सहमी है उषा, ठिठकी ठिठकी भोर
कोहरे का कम्बल लिये, रवि ताके सब ओर।
हुआ धुंधलका सब तरफ, दिखता नहीं प्रकाश
अभी सबेरा दूर है, सोचे विकल चकोर।।
ठिठुरन जाड़े की थमी, शीत पा रही अंत
रंग बिरंगे फूल से, सजने लगे दिगन्त।
हरसिंगार यादें बनीं, बिखरीं मन के द्वार
मन मानस में आ बसा, फिर ऋतुराज बसन्त।।

चिंता केवल जीत की, रहे रात दिन सूख
अवसर मिलता ही नहीं, पद की मिटे न भूख।
मतदाता के हाथ में, है चुनाव की गेंद
सभी टोटके फेल हैं, सब बेकार रसूख।।

आज है चिंता किसे इस देश की
देश की या भूमि के परिवेश की।
कर रहे हैं स्वार्थ की सब साधना
है वक़त कोई न अब सन्देश की।।

रहें चुपचाप तो दुनियाँ हमें मुंहचोर कहती है
अगर कुछ बोल दें तो ये हमें मुंहजोर कहती है।
लिये हाथों में अपनी जान दुश्मन से हैं भिड़ जाते
मगर फिर भी हमे दुनियाँ सदा कमजोर कहती है।।