मुक्तक-52 / रंजना वर्मा
ताजमहल को देख खुली रहतीं आँखे
बिन बोले ही क्या क्या तो कहतीं आँखे।
प्रेम निशानी शहंशाह की या मंदिर
प्रश्नों के आघात कई सहतीं आँखे।।
अपना क्या होता क्या यह केवल अंतर्मन
या है मेरे आत्म रूप का ही यह दरपन।
मैं नही स्वयं इस अपने में केवल छाया
यह स्वत्व वही है जिस पर किया हृदय अर्पण।।
कब तक आस करूँ मैं तेरी, कब तक पन्थ तकूँ
करूँ प्रतीक्षा एक हँसी की, अब तो बहुत थकूँ।
श्याम साँवरे अब तो आ जा, कितनी देर हुई
प्राण कण्ठ तक मेरे आये, कितना और रुकूँ।।
लोग सब मंज़र सुहाना देखते हैं
आंख से काजल चुराना देखते हैं।
छिप गये नीचे इमारत के तले जो
हम वही खँडहर पुराना देखते हैं।।
गले मिलता है शक्कर से भी मीठी बात करता है
है जब मिलता हमेशा प्रेम की बरसात करता है।
छिपाये हाथ में पीछे लिये हथियार बम गोला
पड़ोसी है छली दिल पर कड़े आघात करता है।।