भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुक्तक-56 / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम ने बाबा के कंधे पर चढ़ कर देखी है दुनियाँ
नजरों में वो सदा हमारी सब से श्रेष्ठ रहे गुनियाँ।
गिरना उठना जगना सोना यह सब जिसने सिखलाया
उसकी स्नेह भरी नजरों में मैं अब भी नन्ही मुनियाँ।।

जरा विचारो कि क्या किया है
न कुछ किसी को कभी दिया है।
सदैव ही स्वार्थ को तलाशा
अमानवी सोोच को जिया है।।
हैं बहुत बढ़ने लगीं वीरानियाँ
खल रहीं दिल को मेरे तनहाइयाँ।
है उदासी तोड़ने सीमा लगी
मत पढ़ो अब प्यार की रुबाइयाँ।।
जिंदगी बस इक सफर है दोस्तों
और चलने को उमर है दोस्तों।
दूर से रवि रास्ता दिखला रहा
लक्ष्य की किसको खबर है दोस्तों।।

हाथ जोड़ कर तरु करता है प्रगट यही अभिलाषा,
टूट न जाये इन कलियों की हे प्रभु कोई आशा।
प्रेम बन्ध सिखलाता हम को है सर्वस्व लुटाना
मात्र सत्य है यही यही है जीवन की परिभाषा।।