भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुक्तक-58 / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दूर रहे अपने मन से हम
हार रहे हैं इस तन से हम।
साथ दिया होता यदि मन ने
जीते होते जीवन से हम।।

रात दिन बाट तेरी निहारा करूँ
नाम ले कर तुम्हारा पुकारा करूँ।
साँवरे बन के प्रियतम चले आओ तुम
प्राण चरणों में मैं नित्य वारा करूँ।।

संसार के उपवन का इक फूल जिंदगी
या ब्रह्म के हाथों की है भूल जिंदगी।
काँटों भरी हैं राहें सागर भी भँवर भी
हो हौसला तो कर लो अनुकूल जिंदगी।।

कभी दिन में मिलते कभी रात करते
नहीं होंठ खुलते मगर बात करते।
अगर साँवरे तेरा आना है मुश्किल
तो खुद से ही खुद की मुलाकात करते।।

साँवरे पास तुझे अपने मैं बुला लूँ जरा
उंगलियाँ तेरी लटों में भी मैं उलझा लूँ जरा।
मेरी सब उलझनें तू पल में मिटा देता है
मेरे महबूब ये उलझी लटें सुलझा लूँ जरा।।