भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुक्तक-5 / बाबा बैद्यनाथ झा
Kavita Kosh से
अभी तक शुष्क मरुथल में, कमल भी खिल गया होता
अगर बेदर्द का आसन, ज़रा-सा हिल गया होता
नहीं जब ठौर है दिखता, अकेला घूमता रहता
भटकते उक्त पंछी को, बसेरा मिल गया होता
नाव को अब किनारा नहीं मिल रहा
डूबते को सहारा नहीं मिल रहा
सीख पाऊँ ग़ज़ल गीत मैं आपसे
आप जैसा सितारा नहीं मिल रहा
प्राणवायु अति स्चच्छ मिले जब, पीने को हो निर्मल जल
नहीं रहेगी द्वेष भावना, नहीं करेगा कोई छल
भोजन वस्त्र मकान सहित ही, सभी लोग जब शिक्षित हों
रामराज्य वह आएगा जब, ऐसा होगा मेरा कल