मुक्तक-60 / रंजना वर्मा
नहीं दिखता तुम्हे ज्यादा चलो रोटी बना दूँ मैं
नहीं अच्छी बने फिर भी खरी खोटी बना दूँ मैं।
कभी जुल्फे तुम्हारी थीं घटा से होड़ लेतीं अब
तुम्हारे श्वेत केशों की सुघर चोटी बना दूँ मैं।।
सहमती चाँदनी भयभीत मन मे पीर है गोई
बिलखते चाँद की हर आस मावस ने सदा धोई।
कभी हँसता कभी रोता कभी बेचैन है होता
अजब है दासताँ दिल की करे कैसे बयाँ कोई।।
है प्रतीक्षा तुम्हारी हमेशा रही, तुम न आये तो' आँचल सजल हो गया
द्वार आये तुम्हारे बड़ी आस ले, फेरना मुँह तुम्हारा सरल हो गया।
हम झुकाते रहे शीश नित द्वार पर, पर तुम्हे ही कभी याद आयी नहीं
नाम ले कर तुम्हारा जिये जा रहे, पर सदी की तरह एक पल हो गया।।
भारत का सम्मान करो हर दीद मुबारक कर देंगे
साथ हमारा दोगे हर उम्मीद मुबारक़ कर देंगे।
मिलकर होली और दिवाली सब के साथ मनाओगे
हम को अपना मानोगे हम ईद मुबारक कर देंगे।।
अगरचे आज मनमोहन तुम्हारी दीद हो जाये
तो ये दासी जनम भर को तुम्हारी मुरीद हो जाये।
बहुत दिन से तरसते नैन नित रखते रहे रोज़े
ये रोज़े टूट जायें आज अपनी ईद हो जाये।।