मुक्तक-61 / रंजना वर्मा
न करें दुश्मनी उन से कहना हमे है
बहुत हो चुका अब न सहना हमें है।
न बांटो हमे धर्म या जातियों में
हैं हम एक बन एक रहना हमे है।।
घनी रात हो तो सहर तुम बनो
अकेली डगर राहबर तुम बनो।
अगर चाहते राह उत्कर्ष की
पढ़ो खूब अरु साक्षर तुम बनो।।
प्रगति पन्थ पर वेग से भर रहो
सदा सत्य आदर्श का स्वर रहो।
कभी भी न हो मुँह छिपाना तुम्हें
न दुनियाँ में साथी निरक्षर रहो।।
अगर आँखों मे इक सपना सुहाना आ गया होता
हमे भी नेह का रिश्ता निभाना आ गया होता।
कभी तुम पास आते तो कभी हम पास आ जाते
खयालों में वही गुजरा जमाना आ गया होता।।
जहां के झंझटों से थक कभी जब दिल जलाती हूँ
कन्हैया के खयालों को हृदय में मैं सुलाती हूँ ।
न फिर अपनी ख़बर रहती न दुनियाँ याद है आती
न जाने जागती रहती या सपनों को बुलाती हूँ।।