मुक्तक-70 / रंजना वर्मा
गगन की गोद थी सूनी घटा है छा गयीं ऐसे
बहुत दिन बाद मैके में हो बेटी आ गयी जैसे।
बरसती नीरमुक्ताएँ सरसती पुष्पपंखुरियाँ
भरे आँचल में थे मोती यहीं छितरा गयीं कैसे।।
अनोखा नेह का बन्धन मेरे भाई निभा जाना
मनायें ईद हम होली तुम्हीं आ कर मना जाना।
वतन दोनों का है इस को कभी मत हारने देना
अगर रणभूमि हो कंधे से तुम कन्धा मिला जाना।।
दीप माटी का लिये हूँ नेह की बाती लगा लूँ
तेल भर कर कामना का आस के सपने सजा लूँ।
दूर नैया डोलती है आ रहा मनमीत मेरा
अब भटक जाये न पन्थी एक दीपक तो जला लूँ।।
घटायें हैं घिरीं दिन में अँधेरा हो गया जैसे
नवल आकाश बादल का बसेरा हो गया जैसे।
लिये जल गागरी पनिहारिनें आयी हैं अम्बर तट
गगन पनघट उन्हीं का आज डेरा हो गया जैसे।।
नहीं कुछ चाहिये तू है बस इस विश्वास को ही लूँ
हमेशा साथ है मेरे इसी अहसास को जी लूँ।
बहुत मुश्किल है मनमोहन तुम्हें यों याद कर जीना
बनें यदि तू समन्दर तो मैं तेरी प्यास को पी लूँ।।