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मुक्तक-73 / रंजना वर्मा

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चले आओ कि अब मन डोलता है
बिना बोले बहुत कुछ बोलता है।
छुपा रक्खे हैं दिल मे राज़ कितने
नयन की राह यह सब खोलता है।।

हाथ मेंहदी रचा रही हूँ मैं
अपनी संस्कृति बचा रही हूँ मैं।
रूठ सावन न फिर चला जाये
भावनाएँ नचा रही हूँ मैं।।

मधुर कामना दिल मे जगने लगी है
हमें कृष्ण की प्रीति ठगने लगी है।
प्रतीक्षा करूँ साँवरा आ न पाया
झड़ी आज सावन की लगने लगी है।।

सावन सुहावन आ गया
हर एक के मन भा गया।
घनघोर बादल छा गये
चहुँ ओर जल बरसा गया।।

ठहर गयी है यामिनी जैसे
सहम गयी है चाँदनी जैसे।
आज प्राची दिशा के द्वारे आ
ठिठक गयी है रौशनी जैसे।।