मुक्तक-76 / रंजना वर्मा
प्रीति है साँवरे की सज़ा हो गयी
बिन मिलन जीस्त भी है कज़ा हो गयी।
क्या कहें किस तरह कट रही जिंदगी
तेरे बिन हर खुशी बेमज़ा हो गयी ।।
कितने ही अरमान लिये सब आते हैं
असंतोष से भरे किन्तु रह जाते हैं।
शाश्वत है इस दुनिया मे आना जाना
बंधे मोह में मुक्ति नहीं वे पाते हैं।।
साँवरे यह प्रीत तेरी
बन गयी है मीत मेरी।
बाँसुरी की तेरी ये धुन
श्वांस की संगीत मेरी।।
रात इतनी घनी भी नहीं थी
रक्त में सनसनी ही नहीं थी।
जश्न कैसे मने आँधियों का
साँझ थी रौशनी ही नहीं थी।।
सदा अपनी सुरक्षा देखती है बहन भाई में
इसी से बाँधती है तार रेशम का कलाई में।
बरस पूरे प्रतीक्षा भाई भी करता है राखी की
गिरा दें आइये हम द्वेष औ ईर्ष्या को खाई में।।