मुक्तक-82 / रंजना वर्मा
दरश को साँवरे तेरे हमारी आँख प्यासी है
विचारो तो न कुछ मुश्किल कृपा करनी जरा सी है।
निगाहों मे सदा हैं डोलते अनुराग के सपने
इन्हीं नयनों में देखो छा गयी कैसी उदासी है।।
न हो यदि भावना तो देह में कम्पन नहीं होता
न हो अनुराग तो मन भी कभी उन्मन नहीं होता।
किया करते हैं बात विराग की सन्यास की तप की
जगत को छोड़ देने से विरागी मन नहीं होता।।
बहन पाती सुरक्षा है हमेशा अपने भाई में
इसी से बाँधती है रेशमी धागा कलाई में।
बहन के इस अटल विश्वास को तुम तोड़ मत देना
नहीं होता कोई ऐसा सहज रिश्ता खुदाई में।।
कह रही मेरी तिरछी नजर साँवरे
आ भी जा तू कभी तो मेरे गाँव रे।
बाँस के झुरमुटों से घिरा गेह है
तेरे प्रिय तरु कदंब की घनी छाँव रे।
प्यार से अपनी ही मूरत गढ़ लें
इक नई राह ग़र मिले बढ़ लें।
अपने सर को पकड़ के हाथों में
आज आओ जरा खुद को पढ़ लें।।