मुक्तक-84 / रंजना वर्मा
सोचा   कूदूँगा   जब   तैयारी   होगी
नयी मंजिलों  से  अपनी  यारी होगी।
टहनी पर बैठा  गिरगिट  है सोच रहा
यह छलांग शायद मुझपर भारी होगी ?
तू  कहे  सांवरी  ये  घटा  चूम  लूँ
चाँद को श्याम बादल हटा चूम लूँ।
ओस की बूँद है  काँपतीं  फूल पर
सृष्टि की ये सुहानी  छटा  चूम लूँ।।
न  नैया  को कोई  खिवैया  मिले
न ही  द्रौपदी  को  कन्हैया  मिले।
करे स्वार्थ को त्याग कर नेह जो
बहन को न अब  ऐसा भैया मिले।।
दुख बेटी को दिया, सदा  उस को तरसाया
बेटे  की  मानिंद,  न उस को  ज्ञान  दिलाया।
नहीं हुआ यह भान, शिखर तक चढ़ जायेगी
भरे अनन्त  उड़ान, करेगी  जो  मन भाया।।
अगर बड़ा परिवार, कई  मुख  खाने वाले
करे   कमाई  एक, पड़े    खाने    के  लाले।
बढ़े कर्ज का बोझ, नजर हो  सब की टेढ़ी
अरे अकेला बाप, किस तरह सब को पाले।।
	
	