भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुक्तक-94 / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भोर की हर किरन रँग बदलने लगी
कामना अनछुई सी मचलने लगी।
हाथ मेरा पकड़ कर न अब छोड़ना
राह में अब शमा भी है जलने लगी।।

बहुत ही दूर कश्ती से किनारा हो गया देखो
छुटी पतवार नाविक बेसहारा हो गया देखो।
लहर का है न भय मझधार का भी सोच हो क्योंकर
इबादत की खुदा का इक इशारा हो गया देखो।।

कन्हैया साँवरे मधु रूप तेरा हम को छलता है
मिले दर्शन इसी के हित हमारा मन मचलता है।
तुम्हारी राह में पलकें बिछाये रात दिन रहती
मिलेगा तू हमे इस आस में तन दीप जलता है।।

पवन आवाज देता है गगन में घन बुलाता है
घटायें गुनगुनातीं हैं घिरा सावन बुलाता है।
चला आ साँवरे तुझ बिन रहा अब तो नहीं जाता
न सुन इस श्वांस या तन की तुझे ये मन बुलाता है।।

अँधेरी रात में आ कर पपीहा बोल देता है
हृदय के शांत रस में वो जहर सा घोल देता है।
करूँ क्या साँवरे हर पल सताती याद है तेरी
तुम्हारा स्वप्न नयनों को असीम किलोल देता है।।