भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुक्तक-95 / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चार दिनों की मिली जिंदगी फिर खुद पे इतराना क्या
कर के औरों को अपमानित झूठी शान दिखाना क्या।
पर उपकार करो जीवन भर जब तक जियो प्रसन्न रहो
निश्चित है जब मृत्यु दिवस तो फिर उस से घबराना क्या।।
 
बिखरता सिन्धु में सोना सुहानी शाम है आयी
लुभातीं है हृदय सबका सुखद अभिराम है आयी।
उठा कर तूलिका नभ में सजा दूँ मैं घटाओं को
सुवासित यामिनी होगी लिये विश्राम है आयी।।

नहीं हिंसा से हल होती कभी उलझन जमाने की
जरूरत है हमे क्षमता स्वयं की आजमाने की।
हुआ किसका भला तलवार हाथों में उठाने पर
अगर हो शांति की चाहत जरूरत क्या बहाने की।।

अहिंसा ही हमेशा जीव को पावन बनाती है
यहीं है भावना जो नर को नारायण बनाती है।
जगत में हो दया की शांति करुणा प्रेम की धारा
यही सद्भावना धरती को वृंदावन बनाती है।।

लिखी नयनों में मधुर भाषा पढ़ो
हृदय में जो छिपी अभिलाषा पढ़ो।
घृणा का हर भाव मन से दो मिटा
लिखी सदगुण प्रेम परिभाषा पढ़ो।।