भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुक्तक-96 / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रेगज़ारों में किसे है तिश्नगी अच्छी लगी
था अँधेरा सामने तब रौशनी अच्छी लगी।
छोड़ सब सिंगार आयी चाँदनी तट झील पर
मुग्ध करता रूप उस की सादगी अच्छी लगी।।

हुई लो भोर की बेला बजाती है हवा पायल
जगे सोये सभी पंछी हुई अब नींद भी घायल।
उठो जागो करो सुमिरन कन्हैया श्यामसुंदर का
अनोखी कृष्ण करुणा का ज़माना है हुआ कायल।।

अश्रु सबके कम पड़ें अभिशाप धोने के लिये
उम्र भर आँसू गिरें आँचल भिगोने के लिये।
ख़्वाब आँखों मे सजाये भेज शिक्षालय दिया
दुधमुँहे जाते वहाँ क्या कत्ल होने के लिये।।

तुम लाना सुख भीनी रातें रहने भी दो
प्यारी सच्ची झूठी बातें रहने भी दो।
तुम हो बहुत दे चुके आहें और दर्द भी
अब तो ये झूठी सौगातें रहने भी दो।।

सितारों से पूरा गगन भर गया
लताओं में है बांकपन भर गया।
हवा लूटती खुशबुओं के खजाने
महक से है सारा चमन भर गया।।