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मुक्तक-99 / रंजना वर्मा

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तोड़ दो वह हाथ पत्थर की करे बौछार जो
काट दो वह जीभ दुश्मन की करे जयकार जो।
सिर कलम कर दो न झुकता देश वन्दन के लिये
दो बहुत धिक्कार हैं पीछे से करते वार जो।।

दुश्मन करता रहे शीश पर सदा सदा मनमानी क्या ?
देखो वीरों ! जाँचो अपना खून हो गया पानी क्या ?
हम यूँ ही गफ़लत में सोये मरा करें उन के हाथों
दुश्मन को जो मार गिराये होती नहीं जवानी क्या ?

हृदय में हमेशा निराशा रही
नहीं खेलती शुभ्र आशा रही।
तुम्हारी डगर सिर्फ देखी सदा
मिलन की सदा ही सदाशा रही।।

हमारी आन है हिंदी
हमारा मान है हिंदी।
दिलाती सामने सबके
हमें सम्मान है हिंदी।

लिखें हिंदी पढ़ें हिंदी
कहें हिंदी सुनें हिंदी।
भले कितनी हों भाषाएँ
मगर हम सब चुनें हिंदी।।