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मुक्तक संग्रह-1 / विशाल समर्पित

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व्यर्थ मोती भी आँखो के खो न सके
चाहकर भी कभी खुल के रो न सके
राधिका कृष्ण जैसे जिए उम्र भर
एक होकर भी हम एक हो न सके

अपनी सुधियाँ सभी छोड़कर आ गया
आँसूओं की दिशा मोड़कर आ गया
तुम नकारा समझती रहीं, और मैं
टूटे रिश्ते पुनः जोड़कर आ गया

हर ख़ुशी पा के भी हम रुआसे रहे
राग - अनुराग के कूप प्यासे रहे
भूखा सोने की इच्छा नही थी मगर
तुम को पाने की खातिर उपासे रहे

खूबसूरत भवन प्रेम के ढह गए
स्वप्न सब आँख की कोर से बह गए
कोई सिंदूर भर उनको संग ले गया
और हम दूर से देखते रह गए

अपने मिलने की पावन घड़ी जा रही
आँसुओं की नदी फिर चढी जा रही
क्रोध मे जिसको फाड़ा था मैंने कभी
चिठठी वह प्रेम की फिर पढ़ी जा रही