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मुक्तक संग्रह-2 / विशाल समर्पित
Kavita Kosh से
सीढियाँ नेह की चढ़ नही पाए तुम
आँख से आँख को पढ़ नही पाए तुम
मैं अकेला ही दुनियाँ से लड़ता रहा
चंद अपनो से भी लड़ नही पाए तुम
दूर रहता सदा पास आता नहीं
गैर आते मगर ख़ास आता नहीं
जब से देखा उसे मैंने सच मानिए
आँख को कोई भी रास आता नहीं
रोक तुमको कोई भी शहर न सके
प्रेम की फिर पताका फहर न सके
जाते जाते ह्रदय तोड़ कर जाओ तुम
ताकि आकर कोई फिर ठहर न सके
भाग्य मुझसे कभी रूठता ही नहीं
साथ उनका कभी छूटता ही नहीं
टूटता है तो केवल ह्रदय टूटता
कोई वादा कभी टूटता ही नहीं
नेह का संचरण आज बाधित हुआ
हो गया है अहित या मेरा हित हुआ
पहले सबने कहा तुम समर्पण करो
जब समर्पण किया तो उपेक्षित हुआ