मुक्तक / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
1.
प्रतिपल बहती रहे उसे सरिता कहते हैं
जग को दे आलोक उसे सविता कहते हैं
कवि के उर-अन्तर से जो अधरों पर आकर
जनमानस को छुए उसे कविता कहते हैं
2.
सत्य-न्याय पर बज असत्य की बिजली टूटा करती है
जनता का सुख-चैन दावनी सत्ता लूटा करती है
मानवता का आंचल जब आंसू से तर हो जाता है
तक कवि के अन्तर से कविता बरबस फूटा करती है
3.
हर कविता का पीड़ा से गहरा नाता है
हर छन्द दर्द के सांचे में ढल पाता है
हर एक रागिनी आंहों की है आत्मकथा
आंसू का ही अनुवाद गीत कहलाता है
बदल कर वेष छल जब प्यार का अभिनय रचाता है
शलभ-सा जब सरल मन को विरह पल-पल जलाता है
व्यथा के उस बवण्डर में समाता दर्द जो दिल में
वहीं कवि के अधर पर गीत बनकर लौट आता है
4.
उठ कर कोई चला गया है सुनता हूँ महफ़िल से
विरह भार से बने हुए हैं मन सबके बोझिल से
लेकिन उसके लिए मित्र! दूरी का प्रश्न वृथा है
पल के लिए निकल पाता है जो न किसी के दिल से
5.
सन्त कहाने वाले अब तो हिंसक-क्रुर-नृशंस हो गए
देव समझ पूजे जाते थे, वो असुरों के वंश हो गए
किसे पुकारे मां जब उसके सुत ही हत्यारे बन बैठे
किसको राखी बांधे बहना, भाई निर्मम कंस हो गए
6.
फूलों की बरसात, तुम्हारी बाणों की बौछार मुझे
नीलकंठ बन पचा गया जो दी तुमने विषधार मुझे
भला करे भगवान तुम्हारा, फूलो ओर फलो जग में
युगों-युगों तक याद रहेगा, ‘मधुप’ तुम्हारा प्यार मुझे
7.
विष का जाम पिलाया तुमने, पीकर मैं सुकरात हो गया
सुमनों की सौगात देखकर, कांटो का दल मात हो गया
पीड़ा से मन का गठबन्धन कर भारी उपकार किया है
गीतों का वरदान, तुम्हारा मुझको हर आघात हो गया
8.
पापमय वातावरण होने लगा
दानवी हर आचरण होने लगा
घूमते रावण अनेकों देश में
रोज़ अब सीताहरण होने लगा
9.
मर्द है, जो दुख भरे दिल की इबारत पढ़ सके
मर्द है, जो हादसों के बीच आगे बढ़ सके
भाग्य का रोना रहे रोता भला वह मर्द क्या
मर्द है जो बाहुबल से भाग्य अपना गढ़ सके
10.
कोटि-कोटि मानव धरती पर जन्म लिया करते हैं
और सदा अपने सुख-दुख के लिए जिया करते हैं
किन्तु उसी का जीवन सफल हुआ करता है जग में
लोग चले जाने पर जिसको याद किया करते हैं
11.
धूमिल क्यों इतिहास हो गया त्याग और बलिदानों को
रहा न क्यों सम्मान शेष, आज़ादी के परवानों का
बोलो-बोलो रामराज्य के मीठे सपने कहां गए
हनन हुआ क्यों अमर शहीदों के सारे अरमानों का
12.
वातारवण विषाक्त कर दिया राजनीति के खेलों ने
लोकतंत्र बदनाम कर दिया निर्वाचन के मेलों ने
माली खुद तैयार खड़े है, चमन बेचने को अपना
कर्जदार कर दिया वतन को गांधी जी के चेलों ने
13.
जो बढ़े तूफ़ान की गति से रवानी है वही
जोश जिसमें हो भरा, सच्ची जवानी है वही
ज़िन्दगी मुर्दा-दिलों की मौत से होती न कम
मर मिटे जो देश पर बस ज़िन्दगानी है वही
14.
लोग वक्त के साँचे में ही अक्सर ढल जाते हैं
स्वयं छले जाते या कुछ औरों को छल जाते हैं
कुछ ऐसे भी वीर पुरूष आते हैं इस धरती पर
निज पौरूष से जो युग का इतिहास बदल जाते हैं
15.
मानवोचित कर्म है चलते रहो-चलते रहो
श्रेष्ठतम सद्धर्म है चलते रहो-चलते रहो
वेद का शुचिमंत्र है, उत्कर्ष का साधन यही
सिद्धि का यह मर्म है, चलते रहो-चलते रहो