मुक्तक / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
अपनी परछाई भी कभी धोखा दे देती,
पर आँसू का साथ उम्र भर का होता है ।
हँसने के तो गीत विदूषक गा देते हैं,
किन्तु विछोह की आग सिर्फ़ हृदय ढोता है ॥
तुम्हारे इन्तज़ार में हम मज़ार बन बैठे
हो सके तो तुम कभी चिराग़ जलाते रहना ।
हमसे अगर नहीं है मुहब्बत अब भी तुमको
कसम है तुम्हें-यह राज़ किसी से न कहना ॥
कटती ज़िन्दगी कैसे बेचारा फूल क्या जाने
गुज़रती दिल पर क्या-क्या यह तो ख़ार से पूछो ।
किनारों पर आकर भी कुछ तो डूब जाते हैं
जो डूबकर भी बच निकले मझधार से पूछो ॥
संकल्प जगें तो पर्वत भी हिल जाया करते हैं ।
टूट-टूट्कर शिखर धूल में मिल जाया करते हैं ।
मरुभूमि सहचरी बन सरिता हरियाली भरती
हथेली पर काँटों की फूल खिल जाया करते हैं ॥
बस्ती एक बसाई थी कल
वहाँ पर ढेरों फूल खिलाए।
आज पहुँचकर सन्नाटे में
आशाओं की पौध लगाएँ।।
नहीं हम रहे रोशनी चुराने वाले
हम अँधेरों में दीपक जलाने वाले।
यही सूरज से सीखा, चांद से जाना
सदा चमकते उजाला लुटाने वाले।।
तूफानों में दीपक जलाते चलें
हर मुश्किल में हम गीत गाते चलें।
चलना जिसे साथ वह खुशी से चले
हर दुखी को गले से लगाते चलें।।