मुक्तावली / भाग - 10 / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
समाधि - दृष्टि दृश्य दर्शक, श्रवण श्रोता श्रुतिक उपाधि
भक्ति भक्त भगवंत पुनि एकाकार समाधि।।91।।
पहु मिलन - पट धूसर, तन मन मलिन विकल न अनुखन प्रान
नयन न छवि रस करुन घन, कहु कहु कोना मिलान।।92।।
तन ओ मन - तन टुटितहुँ नहि टुटय मन, छुटितहि मन तन-बंध
छुटय, शून्य चित परम चित जुटय सहज अनुबंध।।93।।
मान-विहग तन-नीड सँ उड़ि नभ शून्य विलीन
अंतरिक्ष प्रत्यक्ष पुनि ज्योति स्वमेव नवीन।।94।।
ज्योति - चमकत उर नभ रवि उदित, पसरत ज्योति अनन्त
विषय नखत हत, जागरित मन तम हटत दुरंत।।95।।
नाद - प्रणव वीण मे व्याहृतिक सप्तक स्वर ध्वनिबंत
त्रिपदा गायन श्रुति नियत अनहद नाद अनन्त।।96।।
प्रवाह-निर्वाह - वपु धरनी-धर प्राण गिरि, निर्झर मनक प्रवाह
सरल वक्र पथ घूरि-फिरि अंत सिंधु निर्वाह।।97।।
रवि रथ - इन्दु बिन्दु गत अमावस पाँतर तमस बितैछ
अथ नवतिथि-पथ रथ रविक क्रमिक पथिक दृग ह्वैछ।।98।।
स्वतन्त्र - घर अनन्त वसुधा जनिक प्राणि मात्र परिवार
हरिक चाकरी करथि जे से स्वतंत्र संसार।।99।।
शतदल - शतदल मुकुलित मानसक निशि तम अलिक निरोध
प्रिय प्रभात रविकर परसि मुकुत युकुत मधु बोध।।100।।