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मुक्तावली / भाग - 3 / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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त्रिया-प्रेरणा - यदि न अहाँ छी पगु पुनि मूक बधिर ओ अंध
धाम नाम यश रूप हित चलु रटु सुनु लखु बंध।।21।।

रसायन - काम लोभ ओ क्रोध, वात पित्त कफ दोष त्रय
करय स्वस्थता रोध भक्ति रसायन बल छुटय।।22।।

शुचि-रुचि - पद पंकज जल बिंदु रुचि अक्षत रुचिर प्रसाद
मन्दिर देहरि शयन शुचि श्रवन नाम धुनि नाद।।23।।

रवि-रश्मि - पंकज पंकक नहि असरि, जलजहु नहि जल योग
कमल न जल शैबाल मल, जे रवि-रश्मि नियोग।।24।।

ज्योति संचार - केन्द्रित शक्तिक योग लहि सुघटित अंतर तार
तड़ित तुरित जीवन सदन करत ज्योति संचार।।25।।

परम भाव - जानि लेब भव भाव ई थिक अभावहिक नाम
पुनि अभाव जनितहि स्फुरित परम भाव अभिराम।।26।।

वैचित्र्य - पद रति अविरत विरति हित, नति उन्नति पद मूल
निगमागम दुर्गहु सुगम शूलिहु हरइछ शूल।।27।।

पहु मिलन - पहिरि मलिन परिधान नहि पहु सँ मिलन प्रसंग
अंग अंग निर्मल करह, जगबह प्रेम उमंग।।28।।

प्रेम-मिलन - नहि घंटा नहि शंख धुनि, ने तुरही धुधुआय
प्रेम मिलन हित चलय कहुँ प्रेमिक भीड़ जुटाय।।29।।

प्रेम दृष्टि - गहनेँ वा पट पहिरने ने पुनि लय मधु मीठ
प्रेमी चित कर्षित करय प्रिया प्रेमहिक दीठ।।30।।