मुक्तावली / भाग - 5 / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
अनेर - मन उपवन बेढ़िय लगा, यम नियमक दृढ़ बेढ़
नहि जहि सँ चरि सकय बढ़ि इन्द्रिय अजा अनेर।।41।।
मरुथल सिंचन - कंचन धन, धनि कांचनी, कांछित यदि मन बीच
मुक्ति युक्ति नहि पल्लवित व्यर्थ मरुक थल सीच।।42।।
विलीनी भाव - लक्ष्य वेध करइत न पुनि शर धनु दिस अभराय
ब्रह्म रूप के कहि सकत जनितहि गेल समाय।।43।।
परमहंस - परम हंस अनुभूति वश जीव ब्रह्म दुइ अंश
जड तजि पय रस एकचित गह मानस अवतंस।।44।।
सत इजोत - अलस तमस गृह आवरण तजि राजस पद रूढ़
सत इजोत लय मगन-मन चलह पहुक घर गूढ़।।45।।
जीवन - जीवन-धन सुख-दुख तडित तुरित चमकि छपि जाय
आयु वायु बहि कहि उछल कत छल घन समुदाय?।।46।।
आयु बिन्दु - काल सिन्धु मे आयु ई बुदबुद बिन्दु नबीन
उठत खसत छन मे बनत पुनि अस्तित्व - विहीन।।47।।
कुम्भकार - नियति चाक पर तन क ई माटि पानि मन सानि
कुम्भकार के रचि रहल घट शत भेद प्रमानि।।48।।
गुरु-करुणा - तन पट ई अघ मल मलिन मोड़ल नेहक लेश
बिनु गुरु - करुणा क्षार नहि क्षालित होय अशेष।।49।।
पंचत्व - गर्भ गुफा शैशव कुटी, यौवन वन तपि हंत
जरा जीर्ण घर बसि गहल पंचत्वे पुनि अन्त।।50।।