मुक्तावली / भाग - 7 / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
मुक्त - चित रहितहुँ जे शून्य चित, करितहुँ जँ न करैछ
मद नहि मस्ती सतत से जिवितहुँ मुक्त रहैछ।।61।।
परत्व - दृश्य न यदि दर्शक कतय, कर्त्ता की बिनु कर्म
सत्ता मात्र प्रतीति रस प्रीति परत्वक मर्म।।62।।
कार्य-कारण - हिम शीतलता नहि पृथक तपन ताप नहि आन
लगत कार्य कारण परम ब्रह्म न भेद प्रमान।।63।।
शक्ति - मांस पिंड ई स्थूलवपु मन अणुनय तनु अन्त
टुटइछ कन परमाणु घन अन्तर शक्ति अनन्त।।64।।
नाम रूप - गगन शून्य नहि रूप गुन तदपि श्याम रुचि रंग
शब्द गुणक, तहिना जगत नाम रूप दुइ अंग।।65।।
मुक्त विहंग- निशि बसि नीड शरीर मे तम गमाय घन निन्न
उड़ल प्रभातहि मुक्त पुनि प्रान बिहग अखिन्न।।66।।
स्मृति 7 देश कोश निज तजि पथिक थकित भ्रमित पथ फीर
तृषित प्रिया स्मृति ज्वलित उर पुनि फिरि चलल अधीर।।67।।
जीवन-खेत - ज्ञानक हल, यम नियम जल, भक्ति भाव रस खाद
उपजय जीवन खेत ई सुकृत बीज निर्बाध।।68।।
मन हरिन - बुझय न चरइत उछिन मन हरिन विषय वन भूमि
रोग जाल लय वृद्धता व्याध चुपहिँ गेल जूमि।।69।।
बंदी - पद चन्दन अभिनन्दनक बंदनवार सजैत
वंदी भववंदी बनल कत दिन रहब झखैत।।70।।