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मुक्तिगीत: व्यक्तित्व से अस्तित्व की ओर / मंजुला सक्सेना

व्यक्ति अभिव्यक्ति है त्रिगुणों की, अस्तितिव की ज़रा खोज करो
अस्तित्व शून्य से उपजा है, हो शून्य ज़रा विश्राम करो
मिट जायेंगे भ्रम-भय-संशय, आनंद सिन्धु जब उमडेगा
अंतःकरण का मधुर लोक जीवन ज्योतिर्मय कर देगा
बस इतना सा कर्त्तव्य बोध तुमको विराट दर्शन देगा
सारे ग्रंथों का सार-बोध, अपने ही अन्दर चमकेगा
जो सात बिंदु है शक्ति के वे सात आकाशीय स्तर
मूलाधार है भूलोक; स्वाधिष्ठान है भुवर्लोक; मणिपूरक है स्वर्गलोक;
विशुद्ध चक्र है जनलोक आज्ञा चक्र है सत्य लोक
मस्तिष्क में छिपे ब्रह्म लोक, विष्णु लोक व रूद्र लोक
पर है कपाल का केंद्र बिंदु राधा-माधव का रासलोक

जब बाह्य जगत का छोड़ मोह इन्द्रियाँ त्याग विषयों के भोग,
मन संग खोजती ईश्वर को, चेतना तभी उठाती ऊपर
नीचे से ऊंचे केन्द्रों को धरती से आगे अम्बर को
दर्शन होते अद्भुत जग के, सुन पड़ती धुन अद्भुत, विचित्र
अस्तित्व बदल जाता है यूं, हिम खंड पिघल जाता है ज्यूँ
केवल जल, तरल, अरूप, तृप्त, न रहे वहां कोई अतृप्त
जब प्राण उमड़ते हैं, ऊपर आनंद लहर करती विभोर
सब देव वहां करते स्वागत मन पाए खोया राज्य महत
गोलोक में छिपे रासेश्वर, आनंद कांड सृष्टा-ईश्वर
छवि उनकी कर देती प्रमत्त, मन हो आतुर और उन्मत्त
चाहे हो जाऊं विसर्जित अब, क्या भला शेष पाने को अब ?
चुन लेता है जिसको ईश्वर, परवश वह हो जाता किंकर