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मुक्तिबोध के पीछे सीबीआई / अम्बर रंजना पाण्डेय
Kavita Kosh से
तुम तो बड़े कवि थे मैं हूँ छोटा आदमी
किन्तु हम दोनों डरते रहे देखकर पुलिस ।
कविता, दस इंच बाय सात इंच की किताब
में जो लिखी थी हमने अन्धेरे के विरोध
में, देखो, वही अन्धेरे की बेलें बनकर
फैल गई भीतर । भागते है देख वर्दी ।
डिटर्जेण्ट, मार्क्स, सच से भी हम वर्दी
धो नहीं पाए है । पहना है जो आदमी
इसे, जो इसे देता है — सुथरा है । बनकर
घूम रहा शाह, वज़ीर, मुंसिफ़, अफ़सर, पुलिस
हमलोग चूहे बन गए हैं अपने विरोध
से ख़ुद ही डरे हुए । क्या कर लेगी किताब !