भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुक्तिबोध के मेहतर का बयान / पराग पावन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उठाकर ले जाओ यह वादों की रिश्वत
आँख की सेज से उठा लो यह सब्ज़बाग़ का सिनेमा
इस क़त्लेआम के मुल्क़-ए-मंज़र में हर दिलोदिमाग़ वाक़िफ़ रहे
हम समझौता नहीं करेंगे
सबके जीने का अपना तरीक़ा होता है
वक़्त की पीठ पर कोई भद्दा निशान बनने से बेहतर है
वक़्त के काग़ज़ को कोरा छोड़ देना
सदी के गाल पर एक अपमानजनक तमाचा होने से बहुत बेहतर है
सदी को दूर से निहारकर गुज़र जाना
हम भद्दे निशान और तमाचे से
मिमियाती ज़ुबान में कोई शिकवा नहीं करेंगे
बस, अपनी आवाज़ का रंग लेकर उठेंगे
और हर भद्दी-अपमानजनक चीज़ पर
पानी में पेट्रोल की तरह गिरेंगे और फैल जाएँगे
हम गिला नहीं करेंगे
दौलत के पहाड़ और भूख की खाईं के रिश्ते से
बस, एक दिन अपने पसीने की जाँत लेकर आएँगे
और सबकुछ को पीसकर बराबर कर देंगे
 
हमें मरने की कोई जल्दबाज़ी नहीं है
पर जिस ज़िन्दगी की रीढ़
लहूख़ाेरों के देवता के सामने झुकी रहती है
हम जानते हैं उसे अलविदा कहने का सुख ग़ज़ब होता है
वह जीत, जिसे इनसाफ़ का मुकुट बेचकर हासिल किया जाता है
हमारी पराजय के दस्तरख़ान से सर झुकाकर गुज़रती है

हम, कुदाल की क़लम से पके अरहर का रुनझुन गीत लिखने वाले
हम, धरती में दबी काली आग से समय का परदा हटाने वाले
हम, ज़िन्दगी को हर शाम ग़ुरबत से छीनकर लाने वाले
हम जानते हैं कि नाइंसाफ़ी के शाही भोज और सूखे भात में
कौन अधिक लज़ीज़ है
कौन अधिक मुलायम है
लूट के डनलप और पुआल के खरखराते बिस्तर में से
यह सब्ज़बाग़ का सिनेमा उठा लो आँखों के सामने से
यह वादों की रिश्वत भी ले जाओ
क़त्लेआम के इस मुल्क-ए-मंज़र में ख़बर रहे लोगों को
कि हम
दरकेंगे
चिटकेंगे
टूटेंगे
बिखरेंगे
मिट्टी में मिट्टी बनकर एक दिन हमेशा के लिए ग़ायब हो जाएँगे
पर समझौता नहीं करेंगे ।