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मुक्तियाँ / लिली मित्रा
Kavita Kosh से
एक बात कहूँ-
मैं आजकल सब भूल जाती हूँ
दिन भूल जाती हूँ
तारीखें भूल जाती हूँ
घटनाएँ भूल जाती हूँ
यहाँ तक कि-
कुछ सोचते हुए अपने ही विचारों
के क्रम भूल जाती हूँ,
कहते-कहते किसी बात को,
उसके कहने का प्रयोजन भी
भूल जाती हूँ
और सच कहूँ तो-
मैं बहुत संतुष्ट हूँ अपनी इन 'मुक्तियों' से
उन्मुक्ति की ओर बढ़ते
मेरे कदम
मानों 'परों' में तब्दील
होते महसूस हो रहे
मेरा आकाश तैयार हो रहा है शायद।
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