मुक्ति-गान / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'
लोहे के छड़ तो टूट गये,
पर बन्दीगृह की अभ्यासी-
पूरी न खुलीं दुखती पाँखें!
धरती की सब हरियाली पी,
ठुमकी ले चाँद-सितारों की,
बिजली की धारण कर कण्ठी-
यदि घूँघरदार घटाओं से
उर्मिल स्वर बिखरा पाया-तो
जानूँगा, पिंजरा अब टूटा!
लोहे के छड़ तो टूट गये,
पर घोर तिमिर की अभ्यासी-
आलोक न सह पातीं आँखें!
ताजे फूलों की गन्ध-सनी,
सुकुमार हवाओं में चिकनी,
मैं काया को लहरा अपनी-
यदि दूर क्षितिज के सिन्दूरी,
झरनों से रस भर लाया-तो
जानूँगा, पिंजरा अब टूटा!
लोहे के छड़ तो टूट गये,
पर मैं न अभी चुन पाया हूँ,
अनुकूल किसी तरु की शाखें!
कोई कुसुमित सी डाली पर,
चुन-चुन स्वर्णिम तिनके सुन्दर,
जीवन में पूनों में, पल भर-
मन का सर्वस्व चढ़ाने को,
यदि नीड़ कहीं रच पाया-तो
जानूँगा, पिंजरा-अब टूटा!