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मुक्ति-पर्व / महेन्द्र भटनागर

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यह वह दिवस है
कि जिस दिन हमारे चरण से
बँधी शृंखला दासता की
तड़क कर अवनि पर गिरी थी,
व सारे जगत ने
बड़ी तेज़ आवाज़ जिसकी सुनी थी,
कि जिससे
सभी भग्न सोये हुओं की
थकी बंद आँखें खुली थीं,
व हर आततायी के
पैरों की धरती हिली थी !

बुभुक्षित व शोषित युगों ने
नवल आश-करवट बदलकर
बड़ी साँस लम्बी भरी जो
कि भय से उसी क्षण
सुदृढ़ देश साम्राज्यवादी
सहम कर
मरण के क़दम पर गिरे,
और खोये
समय की सबल धार में !

क्योंकि निश्चय —
किसी पर किसी भी तरह
:
आज छाना कठिन है !
किसी को किसी भी तरह
अब दबाना कठिन है !

नयी आग लेकर यह जागा तरुण है !
विरोधी ज़माने से लड़ना ही
जिसकी लगन है !

यह वह दिवस है
कि जिस दिन हटा आवरण सब
हमारे गगन पर
नयी रोशनी ले
नया चाँद आया,
अँधेरी दिशा चीर कर
जगमगाया ;
बड़ा आत्म-विश्वास लायाµ
नहीं यह तिमिर अब घिरेगा,
न आँखों पर परदा
प्रलय का गिरेगा,
न उर-वेदना
रात-भर नृत्य करती रहेगी,
नहीं दुःख की और नदियाँ बहेंगी !

उभरती जवानी नयी है !
वतन की कहानी नयी है !
रुकावट सहायक बनी है,
प्रखर युग रवानी यही है !
विजय की निशानी यही है !

यह वह दिवस है
कि जिस दिन नयी ज़िन्दगी ने
सहज मुसकरा मुग्ध
चूमे हमारे अधर थे !
खुले कोटि
अभिनव प्रबल मुक्त स्वर थे !
:
मनायी थीं हमने
विभा-ज्ञान-त्योहार खुशियाँ,
स्वयं आन तक़दीर नाची,
व हम गा रहे थे !
कि दुनिया के सम्मुख
बड़ी तेज़ रफ़्तार से बढ़
भगे जा रहे थे !
शिराओं में लहरें
नये ख़ून की भर !
निडर बन
सहारे बिना
और देशों को लड़ने की ताक़त
दिये जा रहे थे !
पुराने सभी घाव घातक
सिये जा रहे थे !
नयी भूमि पर
एक नव शांत बस्ती
बसाये चले जा रहे थे !


करोड़ों
सजग औरतों के नयन थे,
करोड़ों
सबल व्यक्तियों के चरण थे,
कि जो देश का चेहरा सब
बदलने खड़े थे !
बुरी रीतियों से
कड़ी आफ़तों से लड़े थे !

यह वह दिवस है
कि जिस दिन
हमारी हरी भूमि पर
फूल नूतन खिले थे !
व बरसों के बिछुड़े हुये
फिर मिले थे !
युगोंबद्ध
सब जेलख़ाने खुले थे !
कि हँसते हुए
विश्व-स्वाधीनता के सिपाही
विजय गान गाते
सुखद साँस भर
आज बाहर हुए थे !
अनेकों सुहागिन ने
जिस दिन को लाने
स्वयं माँग सिन्दूर पोंछा
वही यह दिवस है !
वही यह दिवस है !
सफल आक्रमण का
अथक त्याग, बलिदान, आन्दोलनों का,
जगत जागरण का,
क्षुधित नग्न पीड़ित जनों का,
दबी धड़कनों का !