मुक्ति-बोध (1) / महेन्द्र भटनागर
लगता है,
बहुत कुछ बदला हुआ !
नया-नया !
लगता है,
बरसों का चढ़ा जुआ
सहसा उतर गया !
बरसों से,
लम्बी सँकरी
कँकरीली-पथरीली
अनइच्छित सड़कों से
तन पर, मन पर
भारी बोझा ढोते
गुज़रता रहा,
नट की तरह
रोज़-रोज़
एक ही खम्भे पर
चढ़ता-उतरता रहा !
शुक्र है,
अब मुक्त हूँ
हवा की तरह,
कहीं भी जाऊँ,
उडूँ, नाचूँ, गाऊँ !
शुक्र है,
उन्मुक्त हूँ,
लहर की तरह !
जब चाहूँ -
लहराऊँµबल खाऊँ,
चट्टानों पर लोटूँ
पहाड़ियों से कूदूँ
वनस्पतियों पर बिछलूँ,
दौडूँ
बेतहाशा दौडूँ
या
किसी सरोवर में पसर जाऊँ,
बूँद-बूँद बिखर जाऊँ !
मुक्त हूँ,
कुछ इस तरह
जैसे कि
पिँजरे का द्वार
अचानक खुल जाए
पंख फड़फड़ाता तोता
दूर आकाश में उड़ जाए,
हम-उम्र हमजोलियों में मिल जाए,
हम-ख़्वाबा के साथ खेले
उसे आगोश में ले ले
नोचे चूमे !
जो चाहे
जब चाहे
बोले —
ऊँचे या धीमे
आतुर या हौले !
लगता है —
बरसों के लिपटे नागफाँस
- कट गए,
- कट गए,
ज़हरीली बारिश के मेघ
- हट गए !
- हट गए !
अब
चंदन-वृक्षों पर
कस्तूरी फूल खिलेंगे
मधुर-स्रवा-सम
फूलों के गुच्छ लगेंगे !
जो कभी हुआ नहीं
लगता है
अब होगा !
क्योंकि —
बहुत-कुछ
दिखता है
नया - नया
बदला हुआ !