मुक्ति के दस्तावेज़ / कुमार विकल
मैं एक ऐसी व्यवस्था में जीता हूँ
जहाँ मुक्त ज़िन्दगी की तमाम संभावनाएँ
सफ़ेद आतंक से भरी इमारतों के कोनों में
नन्हें ख़रगोशों की तरह दुबकी पड़ी हैं.
और मुक्ति के लिए छटपटाता मेरा मन—
वामपंथी राजनीति के तीन शिविरों में भटकता है
और हर शिविर से—
मुक्ति का एक दस्तावेज़ लेकर लौटता है.
और अब—
शिविर—दर—शिविर भटकने के बाद
कुछ ऐसा हो गया है
कि मुझ से मेरा बहुत कुछ खो गया है
मसलन कई प्रिय शब्दों के अर्थ
चीज़ों के नाम
संबंधों का बोध
और कुछ—कुछ अपनी पहचान.
अब तो हर आस्था गहरे संशय को जन्म देती है
और नया विश्वास अनेकों डर जगाता है.
संशय और छोटे—छोटे डरों के बीच जूझता मैं—
जब कभी हताश हो जाता हूँ
तो न किसी शिविर की ओर दौड़ सकता हूँ
न ही किसी दस्तावेज़ में अर्थ भर पाता हूँ.
अब तो अपने स्नायुतंत्र में छटपटाहट ले
इस व्यवस्था पर—
केवल एक क्रूर अट्टहास कर सकता हूँ.