मुक्ति / रहमान ‘राही’
गुंबद वाली एक गुलाम गरदिश <ref>गलाम गरदिशः मुग़ल दुर्गो में मुख्य प्राचीरों और उनके साथ खड़ी अंदरूनी दीवारों के बीच की गली, जिसमें गुलाम पहरा देते घूमते रहते और प्राचीर को दरारों के बीच से दुश्मन की फ़ौज पर नज़र रखते थे। प्रस्तुत कविता में जिन्दगी की बेबस गति की विडंबना के लिए रूपक के तौर पर।</ref> वह
जिसमें
जम रही ठिठुरती छायाएँ और पिघलते शैल,
सागर को मरूस्थल की लय में बाँधकर
सन्नाटे की रात में
चिनार की टहनियों पर
उद्विग्न सोच का विस्फोट-फाटक३३
गुबंद वाली गुलाम गरदिश <ref>में</ref>
कदमः जलते बुझते चिराग़ों की भभक
नजरेंः लौ में, लपटों के बीच उड़ रहे भुनगे
बढ़ी भ्रांति तो टूट पड़ी अपनी छवि पर
काले पारदर्शी पत्थर पर ही मुधमक्खी
स्वैरी फ़ौजें सीमा से लौट आई
पर रोने लगे पेड़-पौधे हर ओर
गुंबद मुझमें गूँज उठा
और भँवर नाचने लगे
चल रही साँस गुलाम गरदिश की
<ref>पर</ref> नहीं खुली कोई खिड़की किसी रंग महल की
न बजी कोई साँकल किसी प्रेमद्वार की
बाहर, नहीं कोई ध्वनि तरंग उठने वाली है
भीतर, नहीं कोई स्त्रोत पैरों तले फूटने वाला
धूमिल-धूमिल-सा चरखा घूम रहा है
प्रभात और दोपहर, मध्याहृ और रात
पड़ रहा कदम दर कदम
कड़ी में कड़ी अड़ रही
गुलाम गरदिश, धूमिल से धूमिल भेंटा
छनन छना छन, छनन छना छन
स्नेहहीन संगीत <ref>बजा</ref> अरूप् मुद्र <ref>उभरी</ref>
न <ref>निकला</ref> ‘वाक’ <ref>कश्मीरी का एक प्राचीन अर्थ-गंभीर छंद</ref> का सा अर्थ
न ही ‘वचुन <ref>एक मध्यकालीन गीत छंद</ref> का-सा आशय
छनन छना छन, छनन छना छन
<ref>तेरे पैर तले की</ref> ज़मीन धँसी
और ज़ाहिर हुई सुरंग
अस्तित्व रे ! सत रे ! असत पा गए !! बधाई है !
यह अधरचा, अधबीच छूटा नर्तक
कैसे बन पाता
गोदी में सोया सुखसिंचा हीरा
कैसे यह बंदी छूटता
नहीं यदि होता
इसके पाँव तले अविश्वासी यह खड्ड।