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मुक्ति / लीना मल्होत्रा
Kavita Kosh से
तुम्हारी नज़र जब अपनी आँखे छोड़ के मेरी आँखों तक पहुँचती है
तो रास्ते का कोई अवरोध उसे रोक नहीं पाता
बिना व्यवधान कूद लगाती है मेरी आँखों में और
हिमालय की चोटी की स्लाईड से फिसलते हुए
गिरती है सीधा मेरे दिल पर
तभी एक ध्यान घटित होता है
एक निर्दोष झूम उठती है
आवारा आत्मा सिर झुकाए शामिल होती है इन नर्तकों की टोली में
कुछ संभावित ध्वनियाँ बिना जन्म लिए
इस सृष्टि में फैले नाद में घुल मिल जाती हैं
और मै उड़ने लगती हूँ मुक्त होकर