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मुक्त आकाश / शैलेन्द्र चौहान
Kavita Kosh से
बंद करके कमरा
वे बेहस कर रहे हैं
सृजन कर रहे हैं
मैं निठल्ला
बैठा हूँ लॉन में
उन्मुक्त आकाश के नीचे
हरी-भरी दूब पर
लैंपपोस्ट से सटकर
भाग रहे हैं सड़कों पर
साइकलें, मोटरगाड़ियाँ, ट्रक
नहीं रह पाता स्थिर मेरा ध्यान
सुनता हूँ कैंची की आवाज
खच.... खच...
काट रहा है कोई
सुव्यवस्थित ढंग से
मेंहदी की बागड़
बतियाता हूँ मैं उससे
अंदर हैं वे
इस बात का क्षोभ है मुझे
बाहर हूँ मैं
मुक्त आकाश के नीचे
खुश हूँ इस बात से।