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मुक्त वातायन के पास जन शून्य घर में / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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मुक्त वातायन के पास जन शून्य घर में
बैठा ही रहता हूं निस्तब्ध प्रहर में,
बाहर उठता ही रहता है श्यामल छन्द का गान
मानो आ रहा हो धरणी के प्राणों का आह्यन;
अमृत के उत्स स्रोत में
चित्त बहता चला जाता है
दिगन्त के नीलाम आलोक में।
किस की ओर भेजूं मैं अपनी स्तुति को
व्यग्र मन की व्याकुल प्रार्थना ?
अमूल्य को मूल्य देने ढूढ़ता फिरता मन वाणी रूप,
रहता है सदा चुप,
कहता है, ‘मैं हूं आनन्दित’ -
यहीं रुक जाता छन्द,
कहता है, ‘मैं हूं धन्य।’