भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुक्त / रेखा चमोली
Kavita Kosh से
					
										
					
					लकीरें  
एक के बाद एक 
फिर भी छूट ही जाता है
कोई न कोई बिन्दू 
जहॉ से फूटतीं हैं राहें 
चमकती हैं किरणें 
इन्हीं राहों से होकर 
इन्हीं किरणों की तरह
निकल जाना तुम 
लकीरों से बाहर 
रचना अपना मनचाहा संसार 
जिसमें लकीरें 
किसी की राह न राकंे
न ही एक दूसरे को काटें
बल्कि एक दूसरे से मिलकर 
तुम्हारे नये संसार के लिए 
बनें आधार।
	
	