भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुखर वेदना को सहेजकर जीना भी कैसा जीना है / संदीप ‘सरस’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुखर वेदना को सहेजकर जीना भी कैसा जीना है,
जीवन यदि जीवन्त नहीं हो, तो जीवन से मरण श्रेष्ठ है।।

बाधाओं के सम्मुख कैसे, नतमस्तक हो झुक जायेंगे।
थककर चूर हुए भी तो क्या, हार मानकर रुक जायेंगे।

पथ के कण्टक पुष्प बनाना, पौरुष का परिचय होता है,
पथ को जो गौरव दे पाये, मानूँगा वह चरण श्रेष्ठ है।।

जनहित जगहित मानवता से, बढ़कर कोई धर्म नहीं है।
भूखे को रोटी देने से, बेहतर कोई कर्म नहीं है।

व्यक्ति नहीं व्यक्तित्व अमर है, हम बदलेंगे युग बदलेगा,
जीवन को अमरत्व सौंप दे, ऐसा शुभ आचरण श्रेष्ठ है।।

मंज़िल से पहले रुक जाना, यह यात्री का काम नहीं है।
जीवनपथ पर चलना जीवन, पलभर भी विश्राम नहीं है।

ठहरा जल सडांध देता है, बहते रहना ही जीवन है,
हरक्षण जीवनगान सुनाती सरिता का अनुसरण श्रेष्ठ है।।