मुख्यधारा का आदमी / कुमार सुरेश
लेकर पूजा की थाली हाथ में
और श्रद्धा से लबालब मन
खंडित मूर्तियों के शहर में
भ्रमित फिरता हूँ
आश्चर्य और डर से बुदबुदाता हूँ
किसी को पूजने योग्य नहीं पाता हूँ
तभी कोई जुलूस सा दीखता है
गौर से देखा एक बारात है
जिसमें दूल्हे के ऊपर सवार है घोड़ा
बाराती जय-जयकार करते हैं
नाचते रूक-रूक कर
सारे नगर की रौशनी लाई गई है
इसी बारात में
जो न शामिल हो वह अन्धेरे में रहे
उठाए बोझ अपनी उम्मीदों का ख़ुद ही
सारे शहर के रास्ते रोकता जुलूस यह
बताया किसी ने कि उत्सव है
आम आदमी का
तभी एक अजीब सी शर्त बताई गई
जो नहीं होगा मुख्य-धारा मे़ं
असभ्य कहलायेगा
और उसके ठीक ठाक आदमी
होने पर भी शक़ किया जाएगा
आदमी होने का प्रमाणपत्र बहुत ज़रूरी था
इसलिये हर शर्त मान ली मैंने
मंज़ूर किया दिल की रोशनी को बुझा कर
उनकी रोशनी को सर पर रखना
अब जुलूस में सर पर
रोशनी का हंडा रखे, मैं भी चलता हूँ
करता जाता हूँ उजाला शाह-राहों पर
चलते-चलते यह ख्याल झपकता है
काश इस बोझ को उतार पाता
और जाता वहाँ कि जहाँ
ज़़ुबाँ पर टनों बोझ न हो सुविधाओं का
और दमकते हों
तमाम शब्द सच की रोशनी से
जहाँ काबिज न हों दिलो-दिमाग पर वे
जो आदमी होने का प्रमाण पत्र बाँटते हैं
नाटक को ज़िन्ददगी और
ज़िन्दगी को नाटक बताते हैं,
जबकि मालूम है यह उनको भी ख़ूब
ज़िन्दगी की एक ही चीज से पैमाइश हो
सकती है, सिर्फ ज़िन्दगी से
मैं अब एक घोषित सभ्य आदमी
रखता हूँ ध्यान कोई बागी न हो
खंडित मूर्तियों की पूजा होती रहे
और जो सवार हैं उन्हे तकलीफ़ न पहुँचे ।