मुख-छबि कहा कहौं बनाइ / सूरदास
मुख-छबि कहा कहौं बनाइ ।
निरखि निसि-पति बदन-सोभा, गयौ गगन दुराइ ॥
अमृत अलि मनु पिवन आए, आइ रहे लुभाइ ।
निकसि सर तैं मीन मानौ,, लरत कीर छुराइ ॥
कनक-कुंडल स्रवन बिभ्रम कुमुद निसि सकुचाइ।
सूर हरि की निरखि सोभा कोटि काम लजाइ ॥
भावार्थ :-- इस मुख की शोभा का क्या बनाकर (उपमा देकर) वर्णन करूँ । इसकी छटा को देखकर चन्द्रमा (लज्जा से) आकाश में छिप गया है । (अलकें ऐसी लगती हैं मानो) भौरों का झुंड अमृत पीने आया था और आकर लुब्ध हो रहा है । (नेत्रों के मध्य में नासिका ऐसी है मानो) सरोवर से निकलकर दो मछलियाँ लड़ रही थीं, एक तोता उन्हें अलग करने बीच में आ बैठा है । कानों में सोने के कुण्डलों की शोभा को देखकर रात्रि में फूलने वाले कुमुद के पुष्प भी संकुचित होते हैं । सूरदास जी कहते हैं कि श्यामसुन्दर की शोभा देखकर करोड़ों कामदेव लज्जित हो रहे हैं ।